हल्द्वानी: लोक कलाएं सिर्फ कला मात्र नहीं होती हैं। इससे बढ़कर भी इनका महत्व बहुत होता है। देवभूमि में लोक कलाओं की चर्चा हो और ऐपण की बात ना हो, ऐसा नहीं हो सकता। लेकिन ऐपण कला कुछ हद तक लुप्त तो हुई है। युवा इसे आगे बढ़ाने की पुरजोर कोशिशों में लगे हैं। कला को फिर पुरानी पहचान देने का रास्ता मिल गया है। आज हम, ऐपण कला के बारे में विस्तार से बात करेंगे।
दरअसल हिमालयी राज्यों की लिस्ट में उत्तराखंड तीसरा सबसे बड़ा राज्य है। कुमाऊं और गढ़वाल मंडलों में संस्कृति के साथ साथ मान्यताएं, त्योहार मनाने के तौर तरीके भी जुदा-जुदा हैं। ऐपण कला का प्रयास अधिकांश तौर पर कुमाऊं क्षेत्र में किया जाता है। हिंदुओं के लिए ऐपण का मतलब ही भगवान की शक्तियों को आमंत्रित करना होता है।
ऐपण क्या है ?
ऐपण शब्द संस्कृत के शब्द ‘अर्पण’ से लिया गया है, ‘ऐपण’ का शाब्दिक अर्थ ‘लिखना’ होता है। यह कुमाऊं की एक समृद्ध और गरिमापूर्ण परंपरा है। संस्कृति से जुड़ी ये परंपरा कुमाऊं के लगभग हर घर में देखने को मिल जाएगी। इस चित्रकला में विभिन्न रंगो से रंगोली बनाई जाती है। जिसकी खासियत यह है कि इनमें प्रकृति की छाप स्पस्ष्ट रूप से दिखती है।
कई प्रकार के ऐपण बनाए जाते हैं जैसे डेली ऐपण, पीठ, कुछ डिजाइन समारोहों से संबंधित हैं। जबकि कुछ आलंकारिक चित्र हैं, लिख-थाप-पट्टा। बता दें कि ऐपण कला के कई तरीके हैं। इनमें से गुजरात में सथिया, उत्तर प्रदेश में चौक पुराण, बंगाल में अल्पना, बिहार में अट्टापान और कई अन्य नामों से जाना जाता है।

ऐपण कला का धार्मिक महत्व
ऐपण कला कुमाऊंनी घरो में हर त्योहारों, शुभ अवसरों, धार्मिक अनुष्ठानों और नामकरण संस्कार, विवाह , जनेऊ आदि जैसे पवित्र समारोहों का एक अभिन्न मानी जाती है। किसी भी तरह के शुभ कार्यों से पहले ऐपण घरों में ऐपण बनाया जाता है। इसमें धार्मिक महत्वता भी बसती है। बता दें कि ऐपण एक पैटर्न होता है जिसे उंगलियों की मदद से बनाया जाता है।
विशेष अवसरों पर की जाने वाली ये कला लोगों को धार्मिक जड़ों से जोड़ने का भी काम करती है। यह माना जाता है कि ऐपण कला ईश्वरीय शक्ति को विकसित करती है, बुराई से रक्षा करती है और परिवार के लिए सौभाग्य लाती है। इसे दीवारों और फर्श पर बनाया जाता है।

ऐपण बनाने की पारंपरिक विधि
ऐपण बनाने में परंपरा के अनुसार गेरू और विस्वार का इस्तेमाल किया जाता है। गौरतलब है कि गेरू एक सिंदूर रंग की मिट्टी है। जिसे पहले पानी में भिगोया जाता है और फिर इस पर ऐपण का आधार बनाया जाता है। आधार तैयार होने के बाद, सफेद भिगोए हुए चावल के पेस्ट (विस्वार) का उपयोग करके दाहिने हाथ की अंतिम तीन उंगलियों से आधार पर डिज़ाइन बनाया जाता है।
बता दें कि इस कला में जियोमेट्रिक पैटर्न, स्वास्तिक, शंख, सूर्य, चंद्रमा, पुष्प पैटर्न, देवी लक्ष्मी के चरण और अन्य पवित्र आकृतियां मुख्य तौर पर पैटर्न के तौर पर शामिल रहती हैं। माना जाता है कि ये पैटर्न विभिन्न धार्मिक मान्यताओं और प्राकृतिक संसाधनों से प्रेरित हैं। हालांकि अब सिंथेटिक इनेमल पेंट का चलन धीरे-धीरे बढ़ रहा है। लोग एक्रिलिक रंगों का उपयोग कर रहे हैं।

ऐपण बनाने के स्थान
ऐपण फर्श, दीवारों और घरों के प्रवेश द्वार, पूजा कक्ष और विशेष रूप से देवताओं के मंदिर को सजाने के लिए बनाये जाते है। इन डिजाइनों का उपयोग लकड़ी की चौकी (देवताओं के लिए पूजा आसन) को पेंट करने के लिए भी किया जाता है।
1. फर्श, दीवारों और घरों के प्रवेश द्वार (दहलीज), पूजा कक्ष और विशेष रूप से देवताओं के मंदिरों को ऐपण से सजाया जाता है।
2. लकड़ी की चौकी (देवताओं के लिए पूजा आसन) को पेंट करने के लिए भी ऐपण कला काम आती है।
3. हाल में पोशाक, पेंटिंग कैनवस, डायरी, कॉफ़ी मग, बैग, ट्रे, नेमप्लेट, और अन्य वस्तुओं पर भी ऐपण कलाकारी देखने को मिल रही है।
4. विभिन्न अवसरों और अनुष्ठानो के आधार पर, विभिन्न प्रकार की चौकिया बनाई जाती हैं।
ऐपण की विरासत
आमतौर पर आने वाली पीढ़ियां क्या सीखती हैं या किस क्षेत्र की तरफ जाती हैं, उनमें किस तरह के संस्कार होते हैं। ये सब बातें उनकी परवरिश पर निर्भर करती हैं। देवभूमि की खास बात यही है कि यहां कि माताएं अपने बच्चों खासकर बेटियों को लोक संस्कृति से अलग नहीं होने देती हैं। हाल के सालों में जितने भी युवा इस कला को संरक्षित करते आ रहे हैं, सभी अपनी माताओं और बड़े बुजुर्गों को इसके पीछे की प्रेरणा बताते हैं।
खो रही है ऐपण कला
उत्तराखंड में पलायन के मुद्दे से गांव-गांव जूझ रहा है। शहरों से भी लोग बड़े शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। अब इस कारण से पारंपरिक लोक कला नई पीढ़ीयों के पास तक नहीं पहुंच रही। इसी साइकिल के कारण कला खो रही है। कई बच्चों को तो ऐपण शब्द के बारे में भी पता नहीं होता है।
साथ ही आधुनिकीकरण ने भी लोक कला को अलग दिशा देने का काम किया है। इसके स्टिकर बनने के कारण घऱों में खुद कला को बनाने का प्रचलन खत्म होता जा रहा है। ऐसे में वे युवा जो इससे जुड़कर प्रभावी व बेहतरीन कार्य कर रहे हैं, उन्हें भी प्रोत्साहित करने की जरूरत है। अन्यथा इस लोक कला की धरोहर, इस से जुड़ी भावनाएं और सांस्कृतिक मान्यताओं को आगे बढ़ाने के लिए कोई नहीं होगा।
ऐपण कला को आगे बढ़ा रहे युवा
ऐसा भी नहीं है कि हर युवा ऐपण कला से दूर है। कुछ लोग इतने करीब हैं, कि वे मिसाल कायम कर रहे हैं। इन्हीं युवाओं की मदद से कुमाऊंनी चित्रकला ऐपण गांवों से लेकर शहरों, कस्बों और महानगरों तक में लोक प्रिय हो रही हैं। इस क्षेत्र में हेमलता कबड़वाल, मीनाक्षी खाती, नेहा आर्या, पूजा पडियार, शिखा पांडे, दीक्षा मेहता, डॉ. सविता जोशी, निशु पुनेठा जैसे कई युवा शौक या रोजगार एवं व्यवसाय के लिए नए प्रयोग कर रहे हैं।
बेटियां आधुनिक दौर के फैशन के हिसाब से लोक कला ऐपण को आगे बढ़ा रही हैं। सिल्क की साड़ी, कैनवस पर चित्रकारी, नेम प्लेट आदि जगह व वस्तुओं पर ऐपण को बनाकर रोजगार के जरिए खोजे जा रहे हैं। इससे रोजगार भी पैदा हो रहा है और लोक कला को सांसे भी मिल रही हैं। हमें भी जरूरत है कि इन युवाओं की पीठ थपथपाएं और साथ में आगे बढ़ने में मदद करें।
