अल्मोड़ा: पहाड़ के लोग बाहर रहकर भी बाहर नहीं रहते। उनका मन हमेशा यहीं पर रहता है। हमने बीते दो सालों में कितनी ऐसी कहानियां सुनी हैं जिनमें पहाड़ के प्रवासियों ने शहर की नौकरियां छोड़कर उत्तराखंड के लिए कुछ करने का रास्ता निकाला है। पहाड़ी उत्पादों, जड़ी बूटियों को उत्पादों में ढालकर एक मार्केट दिलाना आसान काम नहीं है। इसके साथ लोगों को रोजगार मुहैया कराना और भी मुश्किल है। मगर हरीश बहुगुणा ये सब बाखूबी कर रहे हैं।
मुनियाधारा डोल निवासी हरीश बहुगुणा का सफर शुरुआते से ही कठिन रहा है। उन्होंने 1997 में एसएसजे कैंपस अल्मोड़ा से लॉ प्रथम सेमेस्टर की पढ़ाई के बाद काम करने के मन से पहाड़ को अलविदा कह दिया था। हरीश बहुगुणा बताते हैं कि परिवार का पेट पालने के लिए नौकरी करना जरूरी था। यहां संसाधन ना होने के चलते उन्हें दिल्ली जाना पड़ा।
उत्तराखंड से प्रेम की हद इस बात से पता लगती है कि हरीश बहुगुणा यहां से मुठ्ठी भर मिट्टी अपने साथ दिल्ली ले गए थे। वे बताते हैं कि कई बार पहाड़ की याद आती थी तो उनके आंसु छलक पड़ते थे। वहां उन्होंने कई सालों तक नामी गिरामी कंपनियों में नौकरी की। नौकरी जरूरत थी मगर पहाड़ दिल में जिंदा था।

कोरोना महामारी के कारण आसपास लोगों को खोते देखा तो हरीश बहुगुणा से दिल्ली में रहा नहीं गया। तब ही उन्होंने खुद से वादा किया कि अब तो उत्तराखंड की हवा में वापिस पहुंचकर ही कुछ काम किया जाएगा। कुछ ऐसा काम करने सी सोच मन में थी जिससे खुद को भी रोजगार मिले और युवाओं को भी कुछ हद तक फायदा मिल सके।
16 जून 2020 को उत्तराखंड अपने गांव लौटने के बाद हरीश बहुगुणा ने देवभूमि के तमाम पेड़ पौधे और जड़ी बूटियों का अध्य्यन करना शुरू किया। फिर औषधीय प्रजातियों की खेती शुरू की। इसके बाद उन्होंने पौष्टिक फर्न लिंगुड़ा, जंगली आंवला, काठी अखरोट व कचनार के फूलों से तैयार उत्पादों को माध्यम बनाकर रोजगार बनाना शुरू किया।
हरीश बहुगुणा ने लॉकडाउन के बाद अल्मोड़ा के लमगड़ा में अपनी खुद की कंपनी प्रकृतिमाई (Prakritimai Enterprises) की शुरुआत की। वह बताते हैं कि उनके पास उत्तराखंड मूल का केसर व ओडिशा रीजन की काली हल्दी तक उपलब्ध है। ये कंपनी फर्न लिंगुड़ा का अचार, पहाड़ी मेथी दाना, कचनार, सेब व नाशपाती के भी उत्पाद बनाती है।
बता दें कि हरीश बहुगुणा इस कंपनी के माध्यम से 200 ग्राम से दो किलो के पैक बनाकर देश के कोने कोने में पहुंचा रहे हैं। 200 से 225 रुपये प्रति किलो की दर से अब तक वह 800 किलो अचार बेच चुके हैं। हरीश बहुगुणा टीम के साथ मिलकर जंगली काठी अखरोट, खुबानी के साथ ही कम बिकने वाले पर्वतीय सेब, तुलसी, अंगूर व कद्दू के बीज का मिश्रण तैयार कर रहे हैं। हरीश बहुगुणा चाहते हैं कि देवभूमि अल्मोड़ा को आंवले के लड्डू, खुमानी के पेड़ के लिए जाना जाए।
बता दें कि हरीश बहुगुणा भैंस का घी, पहाड़ में बहुतायत में उगने वाली सतावरी, नागौर राजस्थान का अश्वगंधा भी बेहतरीन तरह से इस्तेमाल कर रहे हैं। कंपनी के उत्पादों को ऑनलाइन अच्छी मार्केट मिल रही है। सबसे खास बात ये भी है कि इन उपभोक्ताओं में से 98 फीसदी उपभोक्ता उत्तराखंड के बाहर के हैं।

इसका साफ मतलब है कि बाहर के लोगों को उत्तराखंड पर बहुत भरोसा है। हरीश बहुगुणा का मानना भी यही है। वह कहते हैं कि लोग उत्तराखंड को देवभूमि कहने के साथ साथ ये मानते हैं कि हम अच्छे लोग हैं। खाद्य उत्पादों में मिलावट नहीं करते। हरीश बहुगुणा कहते हैं कि यही भरोसा हमें हमेशा बनाए रखना है।
गौरतलब है कि कोरोना के समय नौकरी छूट जाने या आर्थिक संकट से जूझने वाले लोगों के लिए ये कंपनी संजीवनी बनकर आई है। हरीश बहुगुणा ने बताया कि हमारा उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा युवाओं व महिलाओं को रोजगार देने का है। इस वक्त लगभग 65 परिवारों का रोजगार सीधे तौर पर हरीश बहुगुणा की कंपनी से जुड़ा है। जिनमें टिहरी, चमोली, पौड़ी व उत्तरकाशी के कई परिवार शामिल हैं।
हरीश बहुगुणा के परिवार ने ही शुरुआत से उनका साथ दिया है। अपनी पत्नी और दो बेटों के साथ मिलकर उन्होंने इस कंपनी को आज एक मुकाम पर पहुंचा दिया है। वह बताते हैं कि पहाड़ के प्राकृतिक संसाधनों व उनका महत्व समझने की जरूरत है। उत्पादों को लंबे समय तक ताजा रखने के लिए एसिटिक एसिड या अन्य रसायनों के बजाय जैविक रूप से नींबू रस व खांड इस्तेमाल करना जरूरी है। देखा जाए तो हरीश बहुगुणा जैसे लोगों की देवभूमि को जरूरत है। यहीं वे शक्ति हैं जो पलायन को जड़ से खत्म कर पहाड़ी उत्पादों को ग्लोबल मार्केट तक पहुंचा रहे हैं।